Wednesday, February 1, 2012

भारत में न्यायिक सुधार की संभावनाएं और चुनौतियाँ

मनीराम शर्मा
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हमारे न्यायालयों और वकीलों के मध्य बहुत सी बातें अस्वस्थ परंपरा के रूप में प्रचलित हैं. किन्तु इन सबका एक ही मूल कारण है, वह  यह है  कि न्यायिक निकाय स्वविनियमित है. स्वविनियमन वास्तव में कार्य नहीं करता है. इसका समाधान वकीलों एवं न्यायाधीशों का मात्र बाहरी विनियमन है. प्रत्येक  अन्य पेशे, जैसे चिकित्सा,  का विनियमन प्रशासनिक एजेंसी जोकि सरकार  के कार्यपालकीय शाखा के अधीन हो द्वारा किया जाता है. मात्र वकील ही स्व निर्मित बार कौंसिल द्वारा विनियमित होते हैं. चूँकि वे अपने आप विनियमित होते हैं अत: वास्तव में वहाँ कोई विनियमन नहीं है.

न्यायालयों के स्वविनियमन के सशक्त कुचक्र को तोडने के लिए भरसक प्रयत्न की आवश्यकता है. बहुत से ऐसे वकील हैं जो कानून तोडकर बिना किसी भय के भारी धन कमा रहे हैं. बहुत से ऐसे न्यायाधीश हैं जो राजा की शक्तियों का सानंद उपभोग कर रहे हैं और जो चाहे कर रहे हैं क्योंकि उन्हें कानूनन और नैतिक रूप से जिम्मेदार ठहराये जाने का कोई भय नहीं है. ये लोग शक्तिसंपन्न और निरापद  हैं. हमें न्यायालयों के किसी स्वतंत्र निकाय द्वारा बाहरी विनियमन के विषय पर गहन चिंतन की आवश्यकता है. हम ऐसे समाज में रह रहे हैं जहाँ पथभ्रष्ट वकील समृद्ध हो रहे हैं और इस पर विराम लगाने की आवश्यकता है. 

माननीय सुप्रीम कोर्ट भी राजा खान के मामले में इस स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त कर चुका है. वकीलों के पेशेवर आचरण के नियम और न्यायाधीशों के आचरण के नियम उच्च नैतिक मानकों की औपचारिक आवश्यकता अभिव्यक्त करते हैं. दुर्भाग्य से ये उच्च नैतिक मानक लागू नहीं किये जा रहे हैं. इसका यह अभिप्राय नहीं है कि समस्त नियमों को ही बदलने की आवश्यकता है अपितु आवश्यक यह है कि जो भी नियम विद्यमान हैं उन्हें बलपूर्वक और निष्ठा से प्रभाव में लाया जाय. इन नियमों के प्रवर्तन में समस्या यह है कि सरकारी न्यायिक निकाय स्वविनियमित है. इस कारण न्यायाधीश एवं वकील एक विषम स्थिति में हैं और वे परस्पर प्रतिदिन साथ साथ कार्य करते है. एक वकील जो किसी न्यायाधीश या साथी वकील के विरुद्ध शिकायत करे वह आगे उसी समुदाय में प्रभावी रूप से  कार्य नहीं कर सकेगा. ईमानदार वकील को अपना मुंह बंद रखना पड़ता है और अनुचित व्यवहार को चुपचाप सहन करना पडता है. 

यदि स्वविनियमन हटा लिया जाय और वकील व न्यायाधीशों का विनियमन कार्यपालिका के अधीन किसी स्वतंत्र एजेंसी से करवाया जाय तो न्यायधीश और वकील अपने मित्रों और साथियों पर नैतिकता के उच्च मानक लागू करने के दायित्व भार से मुक्त हो सकेंगे. इससे ईमानदार वकीलों को इस बात की स्वतंत्रता मिलेगी कि प्रत्येक पर लागू कानून समान है और कानून वास्तव में लागू किये जा रहे हैं. निष्ठावान वकीलों को यह भय नहीं रहेगा कि किसी साथी वकील के विरुद्ध शिकायत करने पर उन्हें कालीसूची में शामिल कर उनका बहिष्कार कर दिया जायेगा. एक संवेदनशील मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा भी है कि प्रत्येक को यह भलीभांति  समझ लेना चाहिए कि न्यायपालिका जनता की  सेवा के लिए है न कि न्यायाधीशों और वकीलों की सेवा के लिए. न्यायालयों का स्वविनियमन असंवैधानिक भी है. हमारे पूर्वजों ने ‘नियंत्रण और संतुलन’ की अवधारणा में विश्वास किया था जिससे शासन के तीनों  स्तंभों को इस आशय से शक्ति और दायित्व दिया गया था कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अन्य दो शाखाएं ईमानदार व जवाबदेह बनी रहें. इस प्रणाली से यह सुनिश्चित होता है कि कोई शाखा राजा की शक्तियों को छीन न ले. किन्तु न्यायिक शाखा स्वविनियमन के बहाने से इस नियंत्रण एवं संतुलन की प्रणाली से बाहर खिसक गयी. 

स्वविनियमन असंवैधानिक है और विधायिका का संविधान के प्रति यह  कर्त्तव्य है कि वह न्यायालयों पर बाहरी नियंत्रण स्थापित करे. यद्यपि संघीय सरकार ने उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के आचरण पर नियंत्रण के लिए न्यायिक दायित्व अधिनियम बनाने की पहल की है किन्तु राज्य सेवा के न्यायाधीशों के अनुशासन हेतु राज्य सरकारों को अपना दायित्व निभाना चाहिए. यह स्मरण रखना चाहिए कि यदि बेईमान वकील समृद्ध होते रहे तो ईमानदार वकील कभी भी मामले जीत नहीं पाएंगे. यह नैतिकता के धरातल पर एक स्पर्धा दौड़ है. जनता का अधिकार है कि उसे ईमानदार वकील, ईमानदार न्यायालय और न्यायाधीश मिलें. जनता  का अधिकार वकीलों के लाभ से पहले आता है. न्यायालय लोगों की सेवा के लिये  हैं न कि उन पर शासन करने के लिए.च

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